जगह-जगह जब मुझ से पूछा जाता है
मेरा नाम और पता
ज्ञात नहीं होता मुझे अपने ही बारे में।
एक बार और रुक कर देखती हूँ।
सामने झर-झर झरती बूँदें
उनके पार आसमान पर
खिंच जाता है इंद्रधनुष -
एक गाँव था जिससे इस बड़े शहर में
पहुँच गई हूँ।
वहाँ की धूप,
कुएँ के पास वाला बरगद
और उससे सटा
सिंघाड़ोंवाला तालाब
जिसका पानी
हरा ही रहता था
वैसा ही मैं चाहती अब भी,
देखो, मेरी नादानी !
इतना ही नहीं :
वही सड़कें
जिन पर मैं डोली हूँ,
छोटी-छोटी शाखाओं-सी फैल
जिन्होंने बेवजह
सारे गाँव को जोड़ रखा था -
मुझे हैं याद
जबकि नाम अपना ही याद नहीं है आज।
यहाँ कितने हिस्सों में
बाँट दिया है अपने को
फिर भी किसी अंश में
पूरा नहीं जी पाती।
कौन-सा नाम, कौन-सा पता सच है?
खोज करती -
अमलतास के वृक्षों की कतार के नीचे से
चलती चली जाती हूँ।